सोच…एक कविता

क्या रोता है पगले अपनी किस्मत पर.
अगर नहीं रोता इंसानो की इस जुर्रत पर,
कही लूट-पाट कही छेर-छार,
जहाँ आच आती है बहु बेटियों की इज्जत पर,
क्या रोता है पगले अपनी किस्मत पर।

कही भूख अकाल गरीबी है,
कही कपट आतंक फरेबी है,
कतारें लगती है यहाँ मस्जिदों और मंदिरों पर,
क्या रोता है पगले अपनी किस्मत पर।

माना की तेरे दुःख भी बाकियों से अलग है,
कालिदास की तरह ही तू भी निखरेगा ये तय है,
विजयी होना है तुझे भी माया के इस आडम्बर पर,
क्या रोता है पगले अपनी किस्मत पर।

कई साधु संत भी हुए यहाँ,
इस राम-कृष्ण की भूमि पर,
और दुःख की तो तू बात ना कर,
जो हंसता था अपने दुख पर,
क्या रोता है पगले अपनी किस्मत पर।

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