यदि मैं शिक्षक होता

गुरु शिष्य की परंपरा युगो युगांतर से चलती आ रही है। मानव जीवन के शुरुआती दौर से ही गुरु को पूजनीय माना जाता है। गुरु को ज्ञान रूपी दर्पण कहा जाता है। गुरु शिष्य परंपरा हमारे इतिहास में तथा पौराणिक धार्मिक शास्त्रों में भी देखने को मिलता है। गुरु को भगवान का रूप माना जाता है। एक गुरु अपने शिष्य को अपने जीवन की सारी पूंजी देने को तैयार रहता है। गुरु की जन्म भर की कमाई पूजी उसका ज्ञान ही होता है और यह ज्ञान रूपी पूंजी शिक्षक हमेशा अपने छात्रों को सौंपने को तत्पर रहता है।

गुरु के बारे में कोई ऐसी कहानियां प्रसिद्ध है जिसमें गुरु के चरित्र और स्वभाव का वर्णन मिलता है जिसमें गुरु के अपने शिष्य के प्रति उदारता को दिखाया जाता है। एक गुरु अपने शिष्य को ज्ञान रूपी फल देता है जिससे वह संपूर्ण अपने जीवन काल में सुख में जीवन बिता सकता है। यह वह फल होता है जो सिर्फ को कभी भूखा नहीं रहने देता। गुरु की वास्तविकता की झलक रामायण काल में भी देखने को मिलती है।

जहां गुरु वशिष्ट गुरु विश्वामित्र गुरु परशुराम जैसे महान गुरुओं का वर्णन मिलता है। गुरु समाज के विकास का स्तंभ होता है। बिना गुरु ज्ञान संभव नहीं है। इस युग में भी आचार्य चाणक्य जैसे महान गुरु हुए जिन्होंने अपने तपस्या और त्याग से संपूर्ण भारत वर्ष में एक क्रांति की लहर ला दी तथा अखंड भारत का निर्माण किया। गुरु सही मार्गदर्शन करने वाला मार्गदर्शक होता है। गुरु का समाज में विशिष्ट स्थान होता है तथा गुरु को सदैव आदर और निष्ठा मिलती है। गुरु कल्याणकारी स्वभाव से बने हुए ज्ञान रूपी सागर होते हैं जिसमें से कितना भी ज्ञान निकाल लेने पर तनिक भी कोई फर्क नहीं पड़ता।

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गुरु वह होता है जो हमेशा समाज के उत्थान के बारे में सोचता है। जो अपनी गुरुत्व की ताकत है ब्रह्मांड बदलने की शक्ति रखता है। जिसमें किसी के प्रति भी थोड़ा भी हीन भाव नहीं होता है तथा जो सही को सही और गलत को गलत बतलाता है। गुरु वह होता है जिसमें लोग लालच और व्यक्तिगत उद्देश्य नहीं होता है जिसका सारा जीवन सामाजिक भलाई के लिए संघर्षरत रहता है। त्याग तप संकल्प गुरु के जीवन का मंत्र होता है। वक्ता का प्रमाण होता है गुरु। प्राचीन युग में भी राजाओं द्वारा में अपने सभा में गुरु के लिए विशिष्ट स्थान दिया जाता था।

किसी भी प्रकार की नीति अन्याय की बात गुरु के समक्ष तथा गुरु के परामर्श के बाद ही पूर्ण होती थी। गुरु को ही राज्य का मार्गदर्शक माना जाता था। गुरु पर कोई दबाव नहीं होता था। आज भी गुरु का स्थान सर्वोपरि है। बदलते परिवेश सामाजिक सोच तथा निजी स्वार्थ के कारण आज गुरु शिष्य परंपरा धूमिल होती नजर आ रही है। आज प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को ही महान सिद्ध करने में तुला है।

जबकि गुरु त्याग का मूल रूप होता है। परंतु आज की शिक्षा प्रणाली की तरह आज गुरु का अस्तित्व ही धूमिल होता जा रहा है। आज शिक्षा को नाप तोल कर बेचा जा रहा है शिक्षकों की नियुक्ति उसके ज्ञान के आधार पर ना होकर जाति तथा आरक्षण के आधार पर होती है। शिक्षा के व्यापार के कारण गुरु का अस्तित्व कम हो गया है। पैसों की महत्वता गुरु शिष्य परंपरा को ग्रहण लगा चुके हैं। आज शिक्षक बच्चों को पैसों के आधार पर शिक्षा देते हैं जितना पैसा उतना ही शिक्षा।

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सुयोग्य शिक्षकों की कमी हो गई है। भ्रष्टाचार और आरक्षण से बने गुरु पैसों को ही सर्वाधिक महत्व दे रहे हैं। छात्रों से उनका रिश्ता संतोषजनक नहीं रहा है। शिक्षक छात्र की 32 दूरी ने कहीं ना कहीं सामाजिक विकास में बाधा उत्पन्न कर रही है। त्याग तपस्या संकल्प को पीछे छोड़ शिक्षक इस होड़ में संलिप्त हो गए हैं कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा पैसा कहां और कैसे मिले। जिसके कारण छात्रों में ज्ञान से ज्यादा डिग्री की महत्वता का आभास हुआ।

छात्रों ने भी पैसा को जीवन का आधार बनाया है। कभी ज्ञान का दर्पण कहे जाने वाले शिक्षक दीपक की भांति खुद अंधेरे में रहकर समाज को प्रकाशित करने वाले शिक्षकों का महत्व और सम्मान कम हो गया है। छात्र शिक्षक की परस्पर संबंध तथा अनुशासन को कायम रखने में कहीं ना कहीं हमारी शिक्षा नीति हमारी सोच असफल रही है। एक सच्चा शिक्षक अपने छात्र की सफलताओं में अपनी जीत को सुनिश्चित करता है। आज समाज के विकास सोच और हालात बदलने के लिए अति आवश्यक है कि शिक्षा नीति में सुधार किया जाए।

छात्रों के प्रति शिक्षकों में पुन: वही त्याग तपस्या का भाव जगाया जाए जिससे समाज का भला हो सके। विना योग्य शिक्षकों के यह संभव नहीं है। हमारी सामाजिक सोच शिक्षा नीति तथा शिक्षक और छात्र हैं इसे पूरा कर सकते हैं। एक सुयोग्य शिक्षक के रूप में शिक्षक की जिम्मेवारी होती है कि वह अपने ज्ञान रूपी प्रकाश से समाज को प्रकाशित करें तथा सही दिशा प्रदान करें। शिष्यों के साथ अपने रिश्ते को सुदृढ तथा निष्ठावान बनाएं। छात्रों को संस्कार दे कि छात्र संघ से अधिक दूसरों के भलाई की बात करें।

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बच्चों को सही दिशा में मार्गदर्शन कर राष्ट्र की विकास तय करना भी एक शिक्षक की जिम्मेदारी होती है। शिष्यों के मन में विराजित द्वेष की भावना को शिष्य के अंदर से निकाल कर वहां पर प्रेम स्थापित करना भी शिक्षकों की जिम्मेदारी होती है। ताकि वह अपने छात्र को सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ते देखकर तथा उसके सामाजिक व्यक्तित्व की अवधारणा देखकर वह प्रसंता से फूले न समाए।

शिक्षकों की मन मानसिकता और व्यक्तित्व छात्र के जीवन में अकल्पनीय परिवर्तन करती है। इसीलिए कहा जाता है कि जैसे शिक्षक वैसे छात्र। समाज में विकास की गाथा को पुनः जागृत करने हेतु शिक्षक छात्र के रिश्तो को सुदृढ़ होना अति आवश्यक है। गुरु शिष्य की परंपरा का हमारे समाज में अनेक उदाहरण है बस उसे पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। एक शिक्षक के रूप में यह उचित तरीका तथा कर्तव्य होनी चाहिए। गुरु के बारे में कहा गया है कि गुरु गोविंद दोनों खड़े किन को लागू पांव, बलिहारी गुरु आपने जिन्होंने गोविंद दियो बताए। अर्थात गुरु को भगवान से भी ऊपर माना गया है।

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