दो जीवित सभ्यताओं का टकराव:-भारत एवं चीन।

मशहूर अमेरिकी राजनीतिक विद्वान ‘Samuel P. Huntington’ ने अपनी किताब “Clash of Civilizations and the Remaking of world order” में कहा था कि बीसवीं सदी एवं उसके बाद की सदी में होने वाले युद्धों में अंतर यही है कि बींसवी सदी के युद्ध राजनीतिक विचारधारा, आर्थिक लाभ एवं विस्तारवादी नीतियों के कारण लड़े जाते थे जबकि बाद की सदी के युद्ध सभ्यताओं के आधार पर लड़े जाएंगें। सदियों से चली आ रही प्राचीन सभ्यताओं के भ्रंश-रेखाओं से बड़े सामाजिक भ्रंशों का निर्माण होगा, शांति कुचली जाएगी और सभ्याताओं की आपसी लड़ाई विश्व युद्ध का स्वरूप धारण कर लेगी। सभ्यता किसी मानव समाज की सबसे बड़ी इकाई है जिसमें दर्शन, राजनीति, अर्थव्यवस्था, विस्तारवादी नीति इत्यादि प्रत्येक चीज समाहित है। भारत तथा चीन इक्कीसवीं सदी के मणि है जिनकी सभ्यता लगभग पाँच हजार साल से भी पुरानी रही है। चीनी सभ्यता जहां सख्त, बेमेल, कठोर एवं कड़े स्वभाव की रही है तो दूसरी तरफ भारतीय सभ्यता इतिहास की समस्त सभ्यताओं में सबसे लचीली, मिलनसार एवं सुशील रही है। विश्व की दो जीवंत सभ्यताओं का यूं आमने-सामने आना समूल विश्व के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है जिसके वैश्विक प्रभाव हो सकते हैं। करीब एक महीनें से भी ज्यादा समय से लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा(LAC) पर दोनों देशों की सेनाओं की बीच तनातनी वास्तव में दो सभ्यताओं के वैश्विक आधिपत्य की लड़ाई है।

मैकियावेली ने अपनी पुस्तक ‘The Prince’ में कहा था कि आपका भूत आपके भविष्य का निर्धारण करता है। भारत के परिपेक्ष्य में यह बात सही भी है। भारतीय सभ्यता की जड़े इतनी गहरी है कि इरान के देवता ‘हीलोलीन’ एवं ‘अहुरमज्दा’ वास्तव में भारतीय वैदिक कालीन देवता ‘हलीन’ एवं ‘असुरमज्जद’ है। जेन्दा भाषा में वैदिक देवता ‘सोम’ को ह्रोम(Haoma) से संबोधित किया गया है। जातक कथाएं बताती हैं कि बेबीलोनिया में मोर नहीं मिलते थे, उन्हें वहाँ भारत से ले जाया गया था। यह भारतीय सभ्यता का विस्तार था। लेकिन मुख्य बात यह है कि भारत आखिर कबतक अपने इतिहास का ढ़िंढ़ोरा पीटकर अपने वर्तमान एवं भविष्य को सुदृढ़ करेगा। भारत को आवश्यकता है कि वह आधुनिक काल में होने वाले सामरिक, सामाजिक एवं सांसारिक प्रयोगों के साथ कदमताल करें अन्यथा पिछड़ जाएगा।

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चीन का महज भारत हीं नही अपितु अपने सारे पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद रहा है, यथा:- ताइवान, हांगकांग, मंगोलिया, तिब्बत, वियतनाम। इसका एक मुख्य कारण चीन का भूगोल भी है। अंतराष्ट्रीय संबंधों की भाषा में चीन को ‘Geographically Handicapped’ यानि भौगोलिक रूप से अपंग देश कहा जाता है। संसाधन भले ही भरपूर मात्रा में चीन में उपस्थित हों किंतु उसका भौगोलिक स्वरूप उसे उसके पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद के लिए उकसाता रहा है। हाल के दिनों में अपने सामरिक एवं आर्थिक हितों की पूर्ति हेतु चीन ने भारत के चिर शत्रु ‘पाकिस्तान’ एवं चिर सखा देश ‘नेपाल’ को भी अपने जाल में फाँस दिया है। नेपाल का हाल के दिनों मे कालापानी, लिपुलेख एवं लिम्पियाधुरा पर दावा एवं उसके संसद के दूसरे संविधान संशोधन द्वारा इन तीन जगहों को नेपाल के नक्शे में दिखाने के पीछे चीन की ही साजिश मानी जा रही है। श्रीलंका के ‘Hambantota’, म्यांमार के ‘Kyauk Phru’, पाकिस्तान के ‘Gwadar’ एवं बांग्लादेश के ‘Chittagong’ बंदरगाहों को अपने नियंत्रण में लेकर चीन भारत को चहुंओर से घेरने की कोशिश कर रहा है। BIMSTEC में सबसे शक्तिशाली देश होने के नाते भारत को आवश्यकता है कि वह बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार, थाइलैंड, नेपाल एवं भूटान से चीन के इस स्वार्थ की चर्चा करते हुए एक फ्रंट तैयार करे। भारत एवं बांग्लादेश BIMSTEC, IORA, SAARC एवं COMMONWEALTH संघ के सदस्य हैं। सांस्कृतिक एवं सामरिक दृष्टि से भारत के इन देशों से संबंध बहुत प्रगाढ़ रहें है, बस आवश्यकता है उसे एक कुशल नेतृत्व देकर सुदृढ़ करने की। भारत को चीन के प्रतिकार हेतु उसके पड़ोसियों का सहयोग सर्वथा आवश्यक है। कूटनीति एवं विदेश नीति का कुशल एवं सार्थक प्रयोग करके भारत चीन के इस विस्तारवादी मंशा को कड़ी चुनौती दे सकता है।

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भारत की जीडीपी कुल US $ 2.6 लाख करोड़ की है जबकि चीनी जीडीपी भारतीय जीडीपी की कुल पाँच गुनी अर्थात् US $ 13.61 लाख करोड़ की है। 2020 के आँकड़ों पर यदि हम ध्यान दें तो भारत चीन से कुल $ 65.1 billion का आयात करता है जबकि भारत चीन को $16.6 billion का निर्यात करता है। भारतीय बाजार लगभग 2000 से भी ज्यादा चीनी सामानों से भरे हुए हैं। हाल ही में LAC पर 15 जून को भारतीय-चीनी सैनिकों की झड़प में एक कर्नल सहित उन्नीस भारतीय जवानों की शहादत ने भारतीय जन के ध्यान को चीनी सामानों के बहिष्कार की ओर आकृष्ट किया है एवं इसके लिए देश स्तर पर विरोध के प्रखर स्वर सुनाई दे रहे हैं। किंतु ये नही किया जा सकता है। भारत को चीनी सामानों के बहिष्कार के लिए सबसे उनके वैकल्पिक मार्ग ढूंढने होंगे अन्यथा सामान की कमी से उनके दामों में उछाल देखने को मिलेगा एवं गरीब तथा मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित होगा। अंतरराष्ट्रीय व्यापार के नियम यह कहते है कि आप किसी देश के साथ व्यापार को ऐसे ही खत्म नही कर सकते। देश में सैनिकों की शहादत के बाद उमड़ी राष्ट्रवाद की प्रबल आँधी के आवेग में आकर यदि भारत चीन से व्यापार के सारे संबंधों को खत्म भी कर देता है तो इसका वैश्विक एवं दूरगामी प्रभाव यह पड़ेगा कि फिर कोई दूसरा देश भारत निवेश से पहले हजार बार सोचेगा।

हालिया दिनों भारत के प्रति चीन की आक्रमकता बढ़ने के लिए कई मायनों में भारत भी जिम्मेवार है। गृहमंत्री अमित शाह का समूल कश्मीर पर वास्तविक दावा एवं उससे चीन की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना CPEC को खतरा एक सबसे महत्वपूर्ण कारक है और यही कारण है कि चीन ने लद्दाख के गलवान घाटी के अपना दावा किया है। भारत को अपने गौरवशाली इतिहास को वर्तमान एवं भविष्य में संजोए रखने के लिए न सिर्फ विदेश नीति अपितु देश नीति पर भी काम करना होगा। जातिगत ढ़ाँचे में निर्मित भारतीय समाज में समरसता की भावना को प्रगाढ़ करना होगा, समूची भारतीय जनसंख्या को राष्ट्र के नामपर एकसूत्र में बाँधने की अतिशीघ्र आवश्यकता है, अन्यथा गलत प्रभाव हो सकते हैं। आवश्यकता है कि भारत की खुफिया एजेंसियां एवं विदेश मंत्रालय चीन द्वारा दमित देश यथा:- हांगकांग, मंगोलिया एवं तिब्बत में चीन विरोधी आवाजों को अपना स्वर भी दें। इससे चीन का आंतरिक कलह वैश्विक स्तर पर सामने आयेगा एवं उसके वैश्विक साख को एक जोड़दार तमाचा लगेगा। जिस प्रकार चीन अरूणाचल एवं लद्दाख पर अपनी संस्कृति एवं भाषा का आधार लेकर दावा करता रहा है ठीक उसी प्रकार भारत भी सांस्कृतिक साक्ष्यों का सहारा लेकर मानसरोवर एवं इससे संबंधित क्षेत्रों पर अपना दावा ठोक सकता है। रक्षा एवं सेना की तैयारी के अलावे भारत को अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं सामरिक दबदबा को कायम रखने के लिए इन चीजों को संज्ञान में लेने की सख्त आवश्यकता है।

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