प्रकृति के ऊर्जा चक्र तथा लोकस्तुति का पर्व है छठ

पुरानी सभ्यताओं में सूर्य को ‘रा’ कहा जाता था।रा ही हमें शक्ति देता था,ऊर्जा देता था,वही मौसमों का कर्त्ता-धर्ता था,सृजन-विनाश,सुख एवं दुख का दाता भी वही था और आज भी है।वही दिनचर्या के शुरु होने का आदि बिंदु था तथा प्रतिदिन उसी की पाताल लोक से आकाश लोक और फिर पाताल लोक की यात्रा मानवों के नींद से उठने से लेकर दिन में काम करने और फिर शाम को घर लौटकर खाना खाकर सो जाने कि क्रिया को निर्धारित करता था तथा जो आज भी जारी है।ब्रह्मांड के केंद्र में भले ही अरस्तू एवं टॉलमी ने ‘जियोसेंट्रीक सिद्धांत’ के द्वारा पृथ्वी को माना था किंतु कालांतर में 16वीं सदी में निकोलस कोपरनिकस ने ‘हेलियोसेंट्रीक सिद्धांत’ के द्वारा यह साबित करने की कोशिश की कि ब्रह्मांड के केंद्र में पृथ्वी नहीं अपितु सूर्य है,जिसे आधुनिक विज्ञान ने भी प्रमाणित किया है।दुग्धमेखला से लेकर अबतक मानवीय ज्ञान से परे रहे करोड़ों आकाशगंगाओं में भले ही जीवन के तौर-तरीके अलग हो,सांस्कृतिक चेतना की पृथक परिभाषाएं हो,सामाजिक एकात्मकता एवं वैज्ञानिक विचारधाराओं के नग्नय से विराट तक का अपना क्रमिक एवं दिलचस्प इतिहास हो किंतु वहाँ भी नियंत्रक एवं ऊर्जा के स्रोत के रूप में सूर्य ही होंगे,यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है।सूर्य शून्य हैं तो महाशंख भी,यति हैं तो गति भी,सभ्यताओं के आदिबिंदु हैं तो सभ्यताओं के अंत भी,दिन में अपनी यात्रा के चरम बिंदु पर यदि वो आकाश में शीर्षस्थ हैं तो यात्रा के पश्चात् भूमंडल की सबसे निचली सतह पर रहने के अभ्यस्त भी ,,,और यह अतिरंजना नहीं है कि सूर्य ही सृजन एवं संहार के मध्य योजन कड़ी हैं।

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बिहार एवं पूर्वांचल के क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों के लिए कार्तिक मास का अपना पृथक महत्व है क्योंकि यह वही मास है,जब मानव इतिहास के समस्त त्योहारों में सबसे कठिन त्योहार माने जाने वाले छठ पर्व का आगमन होता है।पूर्व में इस पर्व के अनेकों नाम रहे हैं यथा:-षष्ठी पूजन,सूर्य षष्ठी व्रत,डाला छठ इत्यादि किंतु ऐसी मान्यता है कि कार्तिक मास के षष्ठी तिथि अर्थात् छठवें दिन को मनाने के कारण इस पर्व का नाम छठ हुआ।हालांकि छठ पर्व प्रत्येक मास के किसी भी षष्ठी तिथि को मनाया जा सकता है किंतु हिन्दू मान्यताओं में कार्तिक मास के व्रत एवं तप मानव को सीधे मोक्ष की ओर ले जाते हैं।यह वही मास है जिसमें मानव एवं परमतत्व के बीच की झीनी चादर का ह्रास होने लगता है और मानव बड़ी सुगमता एवं सहजता से अपने जीवन के परमार्थ का साक्षात्कार कर लेता है।यही कारण है कि कार्तिक मास के छठ पर्व का अपना विशिष्ट स्थान है।छठ पर्व को वैदिक आर्य संस्कृति का पर्याय समझा जाता है।ऋग्वेद में सूर्योपासना एवं उषापूजन हेतु समर्पित अनेकों श्लोक भी हैं तथा इसी वेद में सूर्य को स्थावर जंगम की आत्मा कहा जाता है।यजुर्वेद में सूर्य को ‘चक्षो सूर्यो जायते’ अर्थात् ईश्वर का नेत्र कहा गया है।प्राचीनकाल में सूर्योपासना के लिए एक अलग ही सूर्योपनिषद की रचना की गई है किंतु सूर्यपूजा अर्थात् छठ का इतिहास और भी प्राचीन हो सकता है।धर्म के मानवशास्त्र(Anthropology of Religion) के अनुसार प्रारंभिक काल में मानव प्रकृति के तत्व एवं अनेक प्राकृतिक घटनाएँ यथा:-सूर्य,पानी,आग,भूकंप,ओलावृष्टि इत्यादि से डरता था।जिसके फलस्वरूप धर्म एवं ईश्वर का आविर्भाव हुआ तथा मानव ने उन सारे तत्वों को पूजना शुरू किया,जिससे वो डरता था।सूर्य-पूजन,सूर्योपासना एवं छठ व्रत भी इसी आदिम काल में प्रकट हुआ होगा,लगता कुछ ऐसा ही है।आखिरकार,सूर्य भी तो भी वसुंधरा पर उस ईश्वर की ही प्रतिमूर्ति हैं,जिन्होंने समस्त ऊर्जा चक्र को संभाला हुआ है।जो कष्ट एवं दुखों के नाशक है तथा जिन्होंने प्रकृति के समूल भोजन-श्रृंखलन तथा पौष्टिकता स्तर की जिम्मेदारी अकेले अपने कंधों पर ली है।

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सूर्योपासना का पर्व छठ महज पर्व ही नहीं अपितु लोक एवं प्रकृति के प्रगाढ़ संबंध एवं भावनाओं के प्रकटीकरण की पराकाष्ठा है।छठ महापर्व,’दिवाकर’ एकमात्र साक्षात् देव, जो मूर्त रूप में हम सबके सामने उपस्थित हैं,जिनसे होकर समूल ब्रह्मांड में ऊर्जा का संचार होता है,की स्तुति का चरम बिंदु है।यह पर्व प्रकृति का पर्व है,जहां हम प्रकृति से समस्त अवयवों को, प्रकृति से लेकर, अंततः फिर प्रकृति को ही समर्पित कर देते हैं।लोक की सबसे बड़ी खासियत यही है कि इसने मुख्यतः उन्ही चीजों को अंगीकार किया है जिन्हें शास्त्रों ने नकारा है।यथा:- केला, नारियल, अमरूद, गागल, चना-ये सारे लोक के फल हैं,जिन्हें हमेशा से शास्त्रों ने उपेक्षित किया है किंतु बाँस की दौड़ी,बाँस के सूप और तो और नदी से बालू को निकालकर उसको सिरसोप्ता बनाकर पूजना वस्तुतः लोकस्मिता को अक्षुण्ण बनाएं रखने का अकाट्य प्रयास है।शास्त्रीय पूजन विधि से बिल्कुल पृथक लोक-जीवन के अहरणीय तत्वों को संग्रहीत करके लोक तथा शास्त्रीय देवों के पूजन पद्धति के मध्य योजन कड़ी है छठ महापर्व,जो एकतरफ जीवनदायी जल के स्रोतों में खड़े होकर जीवन की आधारशिला रहे नीर के प्रति अपना सर्वस्व समर्पण करता है तो दूसरी तरफ प्रकृति में ऊर्जा के एकमात्र स्रोत सूर्य की महत्ता को बखानते भी नहीं थकता।यह एकमात्र पर्व है,जहां डूबते हुए सूर्य(अस्ताचल)भी पूजे जाते हैं।डूबते हुए सूर्य को पूजना,वास्तव में जीवन-चक्र के तीनों कालों को एक ही तराजू पर तौल कर देखने की विशिष्ट विचारधारा है,जहां वर्तमान में भूत के प्रति नतमस्तक होकर हम सुदृढ़ भविष्य की कामना करते हैं।छठ महापर्व वास्तव में प्रकृति तथा उसके विभिन्न अवयवों के प्रति लोक-संस्कृति की जिम्मेदारियों के समुचित निर्वहन का पथ-प्रदर्शक है,जिसके नियमों का अनुसरण करके समकालीन समाज समस्त सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पर्यावरणीय क्लेशों से मुक्ति पा सकता है।आइए हम सभी भी छठ महापर्व की मूल अवधारणा को आत्मसात् करें तथा अपनी प्रकृति को पूजें।महापर्व छठ की आप सभी को असीम शुभकामनाएं🙏🙏

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